Tuesday, September 20, 2011

स्लेट-पेंसिल की जगह थाम रहे तीर-धनुष

सूर्यगढ़ा (लखीसराय), जाप्र. : अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए उनके बीच शिक्षा का विकास कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार प्रतिवर्ष लाखों रुपए खर्च कर रही है। लेकिन धरातल पर नजर डालें तो प्रखंड के जंगली-पहाड़ी क्षेत्रों के दर्जनों गांवों में रह रहे आदिवासियों की जिंदगी अब भी दुरूह बनी हुई है। वे अभिशप्त जिंदगी जीने को मजबूर हैं। आज भी आदिवासी बच्चे पढ़ने के बजाए अपने पेट की आग बुझाने के लिए दिन भर इधर-उधर जंगली पशु-पक्षियों का शिकार करने को विवश हैं। सरकारी उदासीनता एवं गरीबी की मार से मासूम आदिवासी स्लेट-पेंसिल की जगह हाथ में परंपरागत हथियार तीर-धनुष संभाले शिकार की तलाश में सुबह होते ही खेतों-जंगलों व पहाड़ों की ओर निकल पड़ते हैं। प्रखंड के बुधौली बनकर पंचायत के डमनिया, कानीमोह, शीतला कोड़ासी, काशी टोला, बंकुरा कोड़ासी, बरमसिया, घोंघर घाटी, बरियारपुर पंचायत के दुद्धम, कनेरिया, जमुनिया, हदहदिया, मनियारा, हनुमान थान, चौरा राजपुर पंचायत के रंगनियां, बंगाली बांध, सुअर कोल, बरियासन, खुद्दीवन आदि आदिवासी गांव सुदूर जंगली-पहाड़ी क्षेत्र में हैं। उक्त गांव में से अधिकांश इलाके में विद्यालय नहीं खुल पाता है। इस कारण बच्चे पढ़ाई से वंचित हो रहे हैं। स्वास्थ्य का भी वही हाल है। यहां के लोगों की जीविका का प्रमुख साधन कृषि एवं जंगल ही है। मौसम की बेरूखी के कारण आदिवासी लोगों के लिए खेती प्राय: घाटे का ही सौदा साबित होता है। इस कारण यहां के अधिकांश लोग जंगल पर निर्भर हैं। जंगल से लकड़ी काट कर तथा सखुआ का पत्ता तोड़कर उसे लगभग 15 से 20 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके उसे बेचकर अपना जीवनयापन करते हैं। चैतू कोड़ा, मंगल कोड़ा, जीतन कोड़ा आदि ने बताया कि लकड़ी एवं सखुआ पत्ता बेचने पर 50 से 60 रुपए मजदूरी मिल पाती है। जिसमें दोनो शाम भोजन का जुगाड़ करना मुश्किल ही नहीं कष्टदाई होता है। ऐसी परिस्थिति में उनके छोटे-छोटे बच्चे भी जीविकोपार्जन में सहयोग करते हैं। जिला कल्याण पदाधिकारी सुरेश नंदन सहाय की मानें तो अनुसूचित जन जाति के लिए विशेष केन्द्रीय सहायता (शत-प्रतिशत अनुदान) प्रदान की गई है। जिसके तहत न केवल उनके बच्चों को शिक्षित करना है बल्कि उन्हें विकसित कर आत्मनिर्भर बनाना भी सरकार का लक्ष्य है।
Source:- Jagran

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