बाबू
कुंवर सिंह (जन्म-
1778 ई., बिहार; मृत्यु- 23 अप्रैल,
1858 ई.) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
के सैनिकों में
से एक थे।
इनके चरित्र की
सबसे बड़ी ख़ासियत
यही थी कि
इन्हें वीरता से परिपूर्ण
कार्यों को करना
ही रास आता
था। इतिहास प्रसिद्ध
1857 की क्रांति में भी
इन्होंने सम्मिलित होकर अपनी
शौर्यता का प्रदर्शन
किया। बाबू कुंवर
सिंह ने रीवा
के ज़मींदारों को
एकत्र किया और
उन्हें अंग्रेज़ों से युद्ध
के लिए तैयार
किया। तात्या टोपे
से भी इनका
सम्पर्क था।
1857 के
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
के प्रसिद्ध नायक
बाबू कुंवर सिंह
के आरम्भिक जीवन
के सम्बन्ध में
बहुत कम जानकारी
उपलब्ध है। सम्भवत:
उनका जन्म 1778 ई.
में बिहार में भोजपुर जिले के जगदीशपुर
गांव में हुआ था। उन्हें बचपन से ही शिक्षा से अधिक शौर्य-युक्त कार्यों में रुचि थी।
बिहार के शाहाबाद में उनकी
एक छोटी रियासत
थी। उन पर
जब कर्ज़ बढ़
गया तो अंग्रेज़ों
ने रियासत का
प्रबन्ध अपने हाथों
में ले लिया।
उनका एजेंट लगान
वसूल करता, सरकारी
रकम चुकाता और
रकम से किस्तों
में रियासत का
कर्ज़ उतारा जाता।
अंग्रेज़ों की चालाकी
इस
अवस्था से बाबू
कुंवर सिंह असंतुष्ट
थे। इसी समय
'1857 की क्रान्ति' आरम्भ हो
गई और कुंवर
सिंह को अपना
विरोध प्रकट करने
का अवसर मिल
गया। 25 जुलाई, 1857 को जब
क्रान्तिकारी दीनापुर से आरा
की ओर बढ़े
तो बाबू कुंवर
सिंह उनमें सम्मिलित
हो गए। उनके
विचारों का अनुमान
अंग्रेज़ों को पहले
ही हो गया
था। इसीलिए कमिश्नर
ने उन्हें पटना
बुलाया था कि
उन्हें गिरफ़्तार कर लिया
जाये। पर अंग्रेज़ों
की चालाकी समझकर
कुंवर सिंह बीमारी
का बहाना बनाकर
वहाँ नहीं गए।
शौर्य प्रदर्शन
आरा
में आन्दोलन की
कमान कुंवर सिंह
ने संभाल ली
और जगदीशपुर में
विदेशी सेना से
मोर्चा लेकर सहसराम
और रोहतास में
विद्रोह की अग्नि
प्रज्ज्वलित की। उसके
बाद वे 500 सैनिकों
के साथ रीवा
पहुँचे और वहाँ
के ज़मींदारों को
अंग्रेज़ों से युद्ध
के लिए तैयार
किया। वहाँ से
बांदा होते हुए
कालपी और फिर
कानपुर पहुँचे। तब तक
तात्या टोपे से
उनका सम्पर्क हो
चुका था। कानपुर
की अंग्रेज़ सेना
पर आक्रमण करने
के बाद वे
आजमगढ़ गये और
वहाँ के सरकारी
ख़ज़ाने पर अधिकार
कर छापामार शैली
में युद्ध जारी
रखा। यहाँ भी
अंग्रेज़ी सेना को
पीछे हटना पड़ा।
निधन
इस
समय बाबू कुंवर
सिंह की उम्र
80 वर्ष की हो
चली थी। वे
अब जगदीशपुर वापस
आना चाहते थे।
नदी पार करते
समय अंग्रेज़ों की
एक गोली उनकी
ढाल को छेदकर
बाएं हाथ की
कलाई में लग
गई थी। उन्होंने
अपनी तलवार से
कलाई काटकर नदी
में प्रवाहित कर
दी। वे अपनी
सेना के साथ
जंगलों की ओर
चले गए और
अंग्रेज़ी सेना को
पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को
जगदीशपुर पहुँचे। लोगों ने
उनको सिंहासन पर
बैठाया और राजा
घोषित किया। परन्तु
कटे हाथ में
सेप्टिक हो जाने
के कारण '1857 की
क्रान्ति' के इस
महान् नायक ने
26 अप्रैल, 1858 को अपने
जीवन की इहलीला
को विराम दे
दिया।
Source :- बाबू कुंवर सिंह