राष्ट्र कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने लिखा था 'साक्षी है, जिनकी महिमा के चन्द्र, सूर्य, भूगोल, खगोल, कलम आज उनकी जय बोल।' दिनकर की उपरोक्त पंक्तियां रामनगर प्रखंड के उन वीर जवानों के लिए बिल्कुल सटीक बैठती हैं, जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अपनी पहचान तो बनाई ही। साथ ही इस दयार का भी नाम रोशन किया। लेकिन आज जो याद है, उससे एक बात साफ झलकती है कि जिन लोगों के लिए 'जय' की आवाज बुलंद होनी चाहिए थी, उनमें से अधिसंख्य नाम गुमनामी के अंधेरे में विलुप्त होते जा रहे हैं। रामनगर की माटी ने अनेक स्वतंत्रता के ध्वज वाहकों को जना। जानिए कौन-कौन थे वो जिन्हे अपने घर परिवार से ज्यादा देश की आजादी प्रिय रही और चम्पारण किस तरह से उन्हें भूलता जा रहा है। रामनगर के सिकटा गांव निवासी महंत धनराज पुरी, तौलाहा के पं. केदार पाडेय, बेलौरा के पं. ललन पांडेय, नगर के नेपाली टोला निवासी पं. लक्ष्मी विलास उपाध्याय। ऐसे कई और नाम हैं जिन्हें 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में ऐतिहासिक योगदान के लिए जाना जाता है। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाम है महंत धनराजपुरी का। अंग्रेजों ने हजारीबाग जेल के 'सेल' में बंद कर दिया था। वे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के सहयोगियों में शामिल थे। महात्मा गांधी के आह्वान पर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में रामनगर के जिन सपूतों ने अपनी भागीदारी निभाई, उनमें पं. लक्ष्मी विलास उपाध्याय, लक्ष्मण प्रसाद उपाध्याय, ललन पांडेय, केदार पांडेय और रामनगर के जोगिया गांव के निवासी फजलूरहमान का नाम उल्लेखनीय है। रामनगर की माटी के इन पांच पुत्रों को ब्रिटिश सरकार ने मोतिहारी जेल में कैद रखा था। लक्ष्मी विलास उपाध्याय को सात महीने तक जेल में रहना पड़ा था। यहां उल्लेखनीय है कि बापू को चम्पारण की यात्रा करानेवाले सेनानी, पं. राजकुमार शुक्ल रामनगर लक्ष्मी बिलास उपाध्याय के घर आते थे। इस तथ्य का उल्लेख 'पं. राजकुमार शुक्ल की डायरी' नामक पुस्तक में भी है। सरकारी अभिलेखों की इन लोगों की वीरता की गवाही देते हैं। आज ये सभी योद्धा इस दुनिया में नहीं है। अब इनके वंशजों के पास ही इनकी स्मृतियां शेष रह गई हैं। चम्पारण के लोग भूलने लगे हैं कि किस तरह से यहां की माटी में जन्मे जवानों ने देश के लिए कैसी यातनाएं झेली। हालांकि अक्सर इस शहर में ये लोग याद तो किए जाते हैं, लेकिन इनके नाम कोई व्यापक समारोह या आयोजन नहीं होता है। यदि कहीं होता भी है तो बस इन वीर जवानों के परिजन ही उनकी वीरता को नमन करने के लिए आयोजन कराते हैं
Tuesday, February 15, 2011
कलम आज उनकी जय बोल
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Saturday, February 12, 2011
गुरुजी बन गए मैनेजमेंट गुरु
मुकेश कुमार, लखीसराय. : गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु के सिद्धांत पर चलने वाले गुरुजी यानी शिक्षक आज दोराहे पर खड़े हैं। उनके पास शिक्षा दान के अलावा ढ़ेर सारे काम हैं। सरकार की नई व्यवस्था ने उन्हें गुरू कम किरानी और ठेकेदार की भूमिका में ला खड़ा किया है। यूं कहें कि गुरूजी अब मैनेजमेंट गुरू बन गए हैं। मध्याह्न भोजन का हिसाब-किताब, स्कूल भवन का निर्माण एवं विभागीय आदेश के आलोक में प्रतिदिन प्रतिवेदन तैयार करना और इससे फुर्सत मिले तो जनगणना व बीएलओ जैसे महत्वपूर्ण कार्यो का निपटारा करना उनकी दिनचर्या बन चुकी है। ऐसे में बच्चों को गुणात्मक शिक्षा मिल पाना सवालों के घेरे में है। इसका अहसास गुरुजी को है मगर व्यवस्था के आगे वे लाचार हैं।
कमजोर हुई रिश्ते की डोर
गुरु-शिष्य के जिस रिश्ते की दुहाई पहले दी जाती थी, जिस गुरु को ब्रह्मा और विष्णु से ऊपर देखा जाता था। आज उस रिश्ते की डोर कमजोर हो गई है। गैर शैक्षणिक कार्य में लगने के कारण बच्चों से उनकी दूरियां तो बढ़ ही रही हैं, किताबों से भी उनका मोहभंग होता जा रहा है। कक्षा में शिक्षा दान देने की बजाय ड्यूटी पूरी करने की खानापूरी की जा रही है।
पड़ रहा शिक्षा पर असर
शिक्षकों के गैर शैक्षणिक कार्य में लगने से शिक्षा पर प्रतिकूल असर पर पड़ रहा है। कभी बीएलओ तो कभी जनगणना की ड्यूटी में व्यस्त शिक्षकों की मानें तो कार्यो के बोझ से मानसिक रूप से दबे रहने एवं अधिकारियों द्वारा हर रोज मांगी जाने वाली रिपोर्ट व समीक्षा बैठकों में ही उनका अधिकांश समय गुजर जाता है।
बन गए मैनेजमेंट गुरू
यह जरूर है कि शिक्षा विभाग ने शिक्षकों को केवल शिक्षक नहीं रहने दिया है बल्कि उन्हें मैनेजमेंट गुरू बना दिया है। हकीकत है कि स्कूलों में गुरुजी का वक्त अब दाल, चावल, सब्जी के हिसाब-किताब तथा भवन निर्माण के सीमेंट, बालू व छड़ के हिसाब में ही ज्यादा बीतता है।
कौन है जिम्मेदार
आज किरानी और ठेकेदार की भूमिका में अगर गुरुजी नजर आ रहे हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं। कहा जाए कि विभाग दोषी है तो यह ठीक होगा। विभाग ने अगर एमडीएम और भवन निर्माण की जिम्मेदारी सौंप दी तो शिक्षकों में गलत करने की हिचक टूट गयी और वे शिक्षक से व्यवसायी हो गये।
क्या कहते हैं अधिकारी
जिला शिक्षा पदाधिकारी रामसागर सिंह कहते है कि शिक्षकों की मानसिकता में बदलाव व व्यवसायिकता के प्रति उनका खिंचाव शिक्षा व्यवस्था में गिरावट का मूल कारण है। अधिकारी स्वीकारते हैे कि शिक्षको को गैर शैक्षणिक कार्यो में लगाने से शिक्षा पर इसका खासा प्रभाव पड़ रहा हैi
सूत्र :- जागरण Feb 08,2011
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